Wednesday 12 October 2016

समसन घाट से लौटकर

समसन घाट से लौटकर :- समसन घाट जाना किसे अच्छा है ? जिस शरीर के लिए सारे उप्कर्म किए जाते है उसे जलते देखकर कौन सहज रह सकता है ? लेकिन दिल्ली मे जाने की जब भी वजह बन गई, जाने से आपने को रोक नही पाया चारो तरफ जलती लशो से उठती लपते और दूर आसमान की तरफ जाती धुँआ के बीच खड़े रहने पर लगता है की इन लपटो  से आपने भीतर भी कुछ जलकर शुद्ध हो रहा है आपने भीतर की आकर जलती है और तोड़ा संवेदनशील मानवीय होकर हम लौटते हैं चीज़ो के पीछे भागना कुछ कम हो जाता है इससे पहले मैं बोध गया घाट कभी नही गया था जितनी भी बार गया लोधी रोड के समसन गृह ही | पहली बार पंकज सिंह को विदाई देने निगम बोध गया गया था भीतर घुसते लगा की आप तईं उसे तरह मृत्यु लोक मे आ पहुंचे
वहाँ हमारे भीतर की अहंकार  भी जलती है और तोड़ा  मानवीय होकर हम लौटते हैं :- जिसकी परिकल्पना पौराणिक कथाओ मे की गई है चारो तरफ शिरफ़जलती लाशे और मौत के संकेतो के बीच सांसारिकता से विरक्त एकअलग हे दुनिया जहाँ की दीवारे पर लिखे पंक्तियों से गुजरते हुए आपकोनष्ट का सही मतलब समझ  आता है कबीर की जिस पंक्ति को हम क्लास रूम मे पढ़ते पढ़ते आए हैं वे अंतिम सत्य के तौर पर मौजूद नज़र आती है और यही आपके सबसे ज़्यादा करीब नज़र लगती हैं जलती लाशो को एकटक देखते हुए भीतर हे भीतर बुदबुदा रहे होते हैं - हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी , केस जरै ज्यों घास / सब जग जलता देख भया कबीर उदास 


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